4 Jun 2025, Wed

सुबह छह बजते हैं और वे घर से निकल पड़ती हैं. रोटी-पानी की तलाश में नहीं, बल्कि उस जंगल को बचाने, जिसके बिना वे अपने अस्तित्व को नकारती हैं. कंधे पर कुल्हाड़ी और जुबां पर वन माफिया को खदेड़ने वाले नारे… यही रुटीन है झारखंड के गिरिडीह जिले के बगोदर प्रखंड की अडवारा पंचायत में आने वाले तुकतुको गांव की महिलाओं का, जो अपने परिवार से पहले पेड़ों को बचाने का संकल्प ले चुकी हैं.

यहां पेड़ों को बच्चों की तरह पालती हैं महिलाएं, परिवार से पहले ख्याल रखकर बना डाला 2300 एकड़ का जंगल

महज 700 लोगों की आबादी वाले इस गांव में यह नियम बनाया गया है कि हर परिवार का एक सदस्य नियमित रूप से जंगल की सेवा और सुरक्षा करेगा. 35 साल पहले शुरू हुई इस मुहिम का नतीजा ही है कि तुकतुको गांव का यह जंगल अब करीब 2300 एकड़ में फैल चुका है, जो किसी जमाने में सिर्फ 20 एकड़ में रह गया था. कैसे शुरू हुई जंगल को बचाने की यह मुहिम? कैसे तुकतुको गांव के लोग हुए एकजुट और कैसे करते हैं वे अपने जंगलों की रक्षा? जानते हैं इस स्पेशल रिपोर्ट में.

यहां पेड़ों को बच्चों की तरह पालती हैं महिलाएं, परिवार से पहले ख्याल रखकर बना डाला 2300 एकड़ का जंगल

जब वन माफिया का शिकार हो गया था पूरा जंगल

गांव के बुजुर्ग और तुकतुको वन बचाओ समिति के संस्थापक कन्हाई प्रसाद महतो ने इस जंगल को बचाने की मुहिम का किस्सा सिलसिलेवार तरीके से सुनाया. अहम बात यह है कि कन्हाई प्रसाद तुकतुको वन बचाओ समिति के पूर्व अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने बताया कि तुकतुको गांव के जंगल को बचाने और बसाने की मुहिम आसान नहीं थी. 80 का दौर था, उस वक्त वन माफिया का आतंक पूरे क्षेत्र पर रहता था. दरअसल, तुकतुको गांव जीटी रोड से सटा हुआ है, जिसका फायदा वन माफिया जमकर उठाते थे और सरेआम पेड़ काटकर ले जाते थे. इसका नतीजा यह हुआ कि तुकतुको का जंगल धीरे-धीरे सिमटने लगा. बता दें कि कन्हाई प्रसाद इस समिति के अध्यक्ष बने और 2016 तक उन्होंने यह जिम्मेदारी संभाली.

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दोस्तों ने शुरू की थी जंगल बचाने की मुहिम

कन्हाई प्रसाद के मुताबिक, यह वह दौर था, जब वह 10वीं पास कर चुके थे. उस वक्त तक जंगल में इतने ज्यादा पेड़ कट चुके थे कि गांव से ही जीटी रोड नजर आता था, जिसकी तुकतुको गांव से दूरी करीब डेढ़ किलोमीटर है. ऐसे में जब कन्हाई प्रसाद एक दिन अपने दोस्तों के साथ स्कूल से लौट रहे थे, तब आपसी बातचीत के दौरान जंगल को बचाने की मुहिम शुरू करने को लेकर सहमति बन गई. इसके लिए पहले लोगों को जुटाना शुरू किया गया और उन्हें जंगल की अहमियत समझाई गई. शुरुआत में यह काम काफी मुश्किल था, लेकिन धीरे-धीरे लोग एक साथ आने लगे और मुहिम रंग दिखाने लगी.

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80 के दशक में जंगल को बचाने की मुहिम शुरू की गई थी, लेकिन इसका असर 90 के दशक में नजर आने लगा. 1992 के दौरान गांव में तुकतुको वन बचाओ समिति बनाई गई. जब तुकतुको वन बचाओ समिति बनी, उस वक्त गांव में जंगल का एरिया महज 20 एकड़ था, जो 2016 तक 2000 एकड़ तक फैल गया.

-कन्हाई प्रसाद महतो

साल-दर-साल ऐसे बढ़ता गया जंगल

गांव के लोगों ने बताया कि शुरुआत में जंगल सिर्फ 20 एकड़ में था. इसके चलते शुरुआत में गांव के सभी लोगों को जंगल में हर महीने पांच-पांच पेड़ लगाने की जिम्मेदारी दी गई. उस वक्त गांव में करीब 250 लोग थे तो हर महीने करीब 1250 पेड़ जंगल में लगाए जाते थे, जिनमें काफी खराब हो जाते थे. ऐसे में कई साल तक यह टास्क जारी रहा. उस दौरान सभी लोगों को इन पौधों का खास ख्याल रखना होता था, क्योंकि शुरुआत में पेड़ जल्दी खराब हो जाते हैं.  ऐसे ही काम करते-करते धीरे-धीरे जंगल घना होता चला गया. गांव के आसपास मौजूद इस घने जंगल की वजह से यहां जलस्तर भी अच्छा रहता है और गांव में पानी की कमी नहीं रहती है. 

यहां पेड़ों को बच्चों की तरह पालती हैं महिलाएं, परिवार से पहले ख्याल रखकर बना डाला 2300 एकड़ का जंगल

महिलाएं अपने बच्चों की तरह रखती हैं पेड़ों का ख्याल

1992 के दौरान तुकतुको वन बचाओ समिति बन गई और शुरुआत में गांव के पुरुषों ने जंगल को बचाने की मुहिम शुरू की. इसके बाद महिलाओं ने यह जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले ली. अब महिलाएं ही पूरी तरह जंगल की देखभाल करती हैं, लेकिन जरूरत पड़ने पर पुरुष भी उनकी मदद के लिए तैयार रहते हैं. आंगनबाड़ी सेविका रामदुलारी देवी ने बताया कि गांव के हर परिवार में एक महिला को जंगल और पेड़-पौधों की देखभाल की जिम्मेदारी सौंपी गई है. दरअसल, जंगल की सुरक्षा के लिए गांव की हर एक महिला की ड्यूटी लगाई जाती है. रोजाना करीब छह महिलाओं का एक ग्रुप सुबह और शाम के वक्त जंगल की पहरेदारी के लिए जाता है. यह ग्रुप कुल्हाड़ी लेकर जंगल जाता है और वन माफिया को पकड़कर गांव की पंचायत के सामने पेश करता है.

यहां पेड़ों को बच्चों की तरह पालती हैं महिलाएं, परिवार से पहले ख्याल रखकर बना डाला 2300 एकड़ का जंगल

अगर किसी महिला का बच्चा छह महीने या साल भर का है तो भी वह महिला जंगल के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाती है. अपनी ड्यूटी के दौरान वह अपने बच्चे को सास या परिवार की अन्य महिला को सौंपकर जाती है. अगर कोई महिला गर्भवती है तो वह जब तक जंगल जा सकती है, अपनी ड्यूटी पूरी करती है. जब वह जंगल में जाने लायक नहीं होती है तो यह जिम्मेदारी उस महिला के परिवार के किसी दूसरे सदस्य को निभानी होती है.

-रामदुलारी देवी

लड़की की शादी होने पर यह है रिवाज

गांव की कुनिका देवी के मुताबिक, तुकतुको के लोगों ने गांव की लड़कियों के लिए भी खास रिवाज बना रखा है. दरअसल, जब किसी लड़की की शादी होती है तो वह विदाई के वक्त गांव के जंगल में एक पेड़ लगाकर जाती है. इस पेड़ की देखभाल उस लड़की का परिवार करता है. यह रिवाज हर लड़की की शादी पर लगातार जारी है. साथ ही, बच्चे के जन्मदिन और पर्यावरण दिवस पर भी पेड़ लगाने की परंपरा लगातार जारी है. कुनिका देवी ने बताया कि नवंबर के महीने में वन मेला भी आयोजित किया जाता है, जिसमें महिलाएं पेड़ों को राखी बांधती हैं और उसकी रक्षा करने का वचन देती हैं.

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कैसे चुने जाते हैं समिति के पदाधिकारी?

तुकतुको वन बचाओ समिति के वर्तमान अध्यक्ष भुवनेश्वर महतो ने बताया कि इस समिति के अध्यक्ष को चुनने के लिए गांव की पंचायत के मुखिया यानी सरपंच के नेतृत्व में एक महासभा आयोजित की जाती है, जिसमें गांव के सभी लोगों को शामिल होते हैं. वहीं, वन विभाग के अफसर भी इस महासभा में मौजूद रहते हैं. ये सभी मिलकर वन बचाओ समिति के लिए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सहसचिव का चुनाव करते हैं. खास बात यह है कि उपाध्यक्ष का पद महिला के लिए आरक्षित है. वहीं, समिति के कामकाज को देखने के लिए ग्रामीणों में से ही कम से कम 15 और ज्यादा से ज्यादा 25 सदस्यों का चुनाव किया जाता है. ये सभी मिलकर आधिकारिक कामकाज के अलावा समिति में शामिल सभी लोगों की ड्यूटी से लेकर अन्य जिम्मेदारियों में अहम भूमिका निभाते हैं. बता दें कि तुकतुको गांव की वन बचाओ समिति सरकार से मान्यता प्राप्त है.

यहां पेड़ों को बच्चों की तरह पालती हैं महिलाएं, परिवार से पहले ख्याल रखकर बना डाला 2300 एकड़ का जंगल

इस समिति के अध्यक्ष को चुनने के लिए गांव की पंचायत के मुखिया यानी सरपंच के नेतृत्व में एक महासभा आयोजित की जाती है, जिसमें गांव के सभी लोगों को शामिल होते हैं. वहीं, वन विभाग के अफसर भी इस महासभा में मौजूद रहते हैं. ये सभी मिलकर वन बचाओ समिति के लिए अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और सहसचिव का चुनाव करते हैं.

-भुवनेश्वर महतो, वर्तमान अध्यक्ष

कैसे तय होती है लोगों की जिम्मेदारी?

तुकतुको वन बचाओ समिति में शामिल सभी लोग हर रविवार को एक बैठक करते हैं, जिसमें जंगल के हालात को लेकर चर्चा होती है. इसके अलावा महिलाओं की रोजाना की शिफ्ट भी तय की जाती है, जिसके तहत रोजाना करीब छह महिलाओं का ग्रुप सुबह 6 बजे जंगल पहुंच जाता है और उसकी रक्षा करता है. यह ग्रुप दोपहर तक जंगल के चप्पे-चप्पे की निगरानी करता है और इसके बाद घर आ जाता है. यही ग्रुप शाम के वक्त दोबारा जंगल जाता है और वन माफिया पर नजर रखता है. इसी तरह गांव की हर महिला की ड्यूटी जंगल की सुरक्षा में लगाई जाती है. जंगल की निगरानी करने वाली सभी महिलाएं साप्ताहिक बैठक में जंगल से जुड़े हर अपडेट देती हैं. इनमें अवैध कटाई से लेकर जंगल में दिखने वाले जानवरों के बारे में जानकारी शामिल है.

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कैसे काम करती है यह समिति?

तुकतुको वन बचाओ समिति में शामिल होने के लिए हर शख्स से दो रुपये का विकास शुल्क लिया जाता है. इसके अलावा साप्ताहिक बैठक, वन गश्ती और मासिक बैठक में नहीं आने वालों पर भी जुर्माना लगाया जाता है. वन गश्ती में नहीं जाने वालों पर पहले 20 रुपये का जुर्माना लगता था, जिसे अब बढ़ाकर 51 रुपये कर दिया गया है. वहीं, साप्ताहिक बैठक में नहीं आने वालों पर पहले 10 रुपये का जुर्माना लगता था, जो अब बढ़ाकर 20 रुपये कर दिया गया है. 

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गांव के लोगों की मदद भी करती है यह समिति

गांव की अंजू देवी के मुताबिक, सभी सदस्यों से हर साल आने वाले विकास शुल्क और जुर्माना लगाने से समिति के पास आने वाले पैसे का इस्तेमाल गांव के लोगों की मदद में इस्तेमाल किया जाता है. इसी पैसे से गांव में सरकारी स्कूल की बिल्डिंग बनाई गई. वहीं, अगर किसी बेटी की शादी हो रही है और उसके पास पैसा नहीं है तो उन्हें बिना किसी ब्याज के पैसा उधार दिया जाता है. वहीं, आर्थिक रूप से कमजोर लोगों की भी यह समिति मदद करती है. अगर गांव में रहने वाले किसी भी शख्स के साथ आपात घटना होती है तो उनकी भी आर्थिक मदद की जाती है. साथ ही, बारिश के मौसम में समिति की बैठक को सुचारू रूप से जारी रखने के लिए एक सामुदायिक भवन भी बनाया गया है.

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आग से ऐसे बचाते हैं जंगल

गांव की लीलावती और मीरा देवी ने बताया कि गर्मी के मौसम में जंगल में कई बार आग लग जाती है. ऐसे में समिति में शामिल महिलाएं और गांव के बाकी लोग मिलजुलकर आग बुझाते हैं. उस दौरान सबसे पहले सूखे पत्तों को पेड़ों से दूर किया जाता है, जिससे आग न फैले. जैसे ही जंगल में आग लगाने का पता लगता है तो उसे बुझाने के लिए लोग अपने-अपने घरों से पानी लेकर जंगल की ओर दौड़ जाते हैं, जिसकी मदद से आग बुझाई जाती है. दरअसल, जंगल में पानी की कोई व्यवस्था नहीं है, जिसके चलते लोगों को अपने घर से ही पानी लाना पड़ता है. वहीं, जिन पेड़ों में आग लगी होती है, उनकी उन टहनियों को काट दिया जाता है, जिससे आग बाकी पेड़ों में न फैले. इसके अलावा जंगल में आग लगने को लेकर और उसे बुझाने के तरीके भी गांव के लोगों को समय-समय पर बताए जाते हैं.

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गांव के लोगों को कैसे मिलती है लकड़ी?

वन समिति के अध्यक्ष भुवनेश्वर महतो के मुताबिक, तुकतुको के जंगल से गांव के लोगों को भी लकड़ी मिलती है, जिससे वे अपने घर से लेकर बैलगाड़ी और हल आदि चीजें बनाने में इस्तेमाल करते हैं. इसके लिए एक फीस तय की गई है, जिसे देकर गांव के लोग लकड़ी ले सकते हैं. अगर गांव का कोई निवासी भी अवैध तरीके से लकड़ी काटता है तो उस पर भी जुर्माना लगाया जाता है. 

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वन माफिया को कैसे देते हैं सजा?

गांव की बबिता देवी ने बताया कि अगर कोई अवैध रूप से जंगल में कटाई करता है तो उस पर जुर्माना लगाया जाता है. यह जुर्माना पौधों की अहमियत के आधार पर तय किया जाता है. जैसे अगर कोई औषधीय पौधे या पेड़ को काटता है तो एक बोझे पर 150 रुपये का जुर्माना लगाया जाता है. दरअसल, इस जंगल में बरबलइया जैसे औषधीय पौधे ज्यादा होते हैं, जो लकवा और मलेरिया आदि बीमारियों के इलाज में काम आता है. इसके अलावा महुआ, केंद, पियार, कुरकुरैया, बेहर, चिरायता, भेलवा और मेंदू पत्ता जैसे पेड़ भी जंगल में लगाए गए हैं. वहीं, सखुआ के पेड़ को काटने वाले पर 1500 से 2000 रुपये तक का जुर्माना लगाया जाता है. वहीं, वन माफिया के गुर्गों की कुल्हाड़ियां छीनकर रख ली जाती हैं.

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नई पीढ़ी को कैसे सौंपते हैं जिम्मेदारी?

गांव के युवाओं में शामिल गंगाधर सिंह ने बताया कि तुकतुको गांव के लोग सिर्फ खुद ही जंगल बचाने के लिए अहम कदम नहीं उठा रहे हैं, बल्कि इसके लिए नई पीढ़ी को भी तैयार कर रहे हैं. गांव के सरकारी स्कूल में बच्चों को पर्यावरण से संबंधित बातों की जानकारी दी जाती है. साथ ही, उन्हें बताया जाता है कि पेड़-पौधों की देखभाल से ही उनका भविष्य सुरक्षित रह सकता है. ऐसे में बच्चों से भी जंगल में पौधे लगवाए जाते हैं और उनसे इन पेड़ों की देखभाल भी कराई जाती है. 

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दिव्यांग भी नहीं हैं किसी से पीछे

गांव में ही रहने वाले व्यास नारायण सिंह करीब 75 फीसदी दिव्यांग हैं, लेकिन गांव में नए-नए पेड़ लगाने और उन्हें बचाने की मुहिम में वह किसी से पीछे नहीं हैं. वह हर साल दो-तीन नए पेड़ जरूर लगाते हैं. साथ ही, पेड़ों को जानवरों से बचाने के लिए बांस का घेराव भी तैयार करते हैं. गांव वालों के मुताबिक, व्यास नारायण सिंह अब तक 100 से ज्यादा पेड़ लगाते हैं.

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रात में भी होती है गश्त

गांव की महिलाओं ने बताया कि जब जंगल में वन माफिया के आने का पता चलता है तो गांव के सभी लोग एक्टिव हो जाते हैं. ऐसे में रात के वक्त भी लगातार गश्त की जाती हैं और माफिया को जंगल से खदेड़ दिया जाता है. उस दौरान भी महिलाएं किसी भी हालात का सामना करने के लिए तैयार रहती हैं.

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जंगल से हर घर को जमकर होती है कमाई

अहम बात यह है कि गांव के लोग जितनी शिद्दत से इस जंगल की रक्षा करते हैं तो जंगल से ही उनको भरपूर इनाम भी मिलता है. दरअसल, जंगल में महुआ के भी काफी ज्यादा पेड़ लगे हैं, जिसका फल दवा से लेकर सूखे मेवा आदि तमाम चीजें बनाने के काम आता है. आलम यह है कि सीजन के दौरान महुआ के पेड़ से एक परिवार को हर महीने हजारों रुपये की कमाई होती है. बता दें कि महुआ का फूल और फल कई बीमारियों के इलाज में भी फायदेमंद होता है.

समिति को कई बार मिल चुका अवॉर्ड

पर्यावरण की सुरक्षा और तुकतुको जंगल को लगातार बढ़ाने के लिए तुकतुको वन बचाओ समिति को कई अवॉर्ड भी मिल चुके हैं. साल 2010 के दौरान तुकतुको वन बचाओ समिति के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हाई महतो को राज्य सरकार की ओर से सम्मानित किया गया था. वहीं, 15 हजार रुपये का नगद पुरस्कार भी दिया गया था. इसके अलावा साल 2018 में हुए 9वें नेशनल कनवेंशन में भी तुकतुको वन बचाओ समिति को सम्मानित किया गया था. पर्यावरण के लिए अथक प्रयासों के लिए इस समिति को 2018-2019 के दौरान वन विभाग की तरफ से पांच लाख रुपये का आर्थिक पुरस्कार भी मिल चुका है.

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फॉरेस्ट विभाग से भी मिलती है मदद

गांव के लोगों ने बताया कि जंगल को बढ़ाने में फॉरेस्ट विभाग के अफसर भी उनकी काफी मदद करते हैं. इसके लिए समय-समय पर गांव के लोगों को ट्रेनिंग दी जाती है, जिसमें उन्हें पेड़ों के रखरखाव का तरीका भी बताया जाता है. गांव तुकतुको के समाजसेवक राजकिशोर सिंह ने बताया कि तुकतुको के जंगल को बचाने में गांव के लोगों के साथ-साथ फॉरेस्ट विभाग के अफसरों का भी अहम योगदान रहा है. वे अपनी जमीन लगातार गांव के लोगों को सौंपते रहते हैं, जिससे ज्यादा से ज्यादा पेड़-पौधों को लगाया जा सके. उन्होंने बताया कि इस जंगल को शासन, प्रशासन, जनता-जनार्दन, गांव-घर और बच्चे-बूढ़े सब मिलकर बचा रहे हैं.

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ऐसे काम करता है फॉरेस्ट विभाग

बगोदर के फॉरेस्टर (वनपाल) डीलो रविदास ने बताया कि इस जंगल को बचाने की शुरुआत करीब 35 साल पहले झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन यानी जेजेबीए के तहत की गई थी. ऐसे में सिर्फ तुकतुको ही नहीं, बल्कि राज्य के अलग-अलग गांवों में जंगलों को बचाने की मुहिम चलाई गई. इसी क्रम में झारखंड फॉरेस्ट मैनेजमेंट कमेटी बनाई गई, जो हर गांव के पास मौजूद जंगल की निगरानी करती है और वन बचाओ समिति की मदद से इन जंगलों की रक्षा करती है. साथ ही, वन विभाग समय-समय पर डिमार्केशन प्लॉट जारी करता है, जिस पर गांव के लोगों को पेड़ लगाकर जंगल बढ़ाने की अनुमति दी जाती है. इसके अलावा राज्य सरकार की टीम भी समय-समय पर जंगलों का मुआयना करती है और जंगलों की बेहतर तरीके से देखभाल करने वाली समितियों को कैश प्राइज देकर सम्मानित किया जाता है.

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डिस्क्लेमर: यह रिपोर्ट प्रॉमिस ऑफ कॉमन्स मीडिया फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है.

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